मुसाफ़िर!जाएगा कहाँ?--भाग(१७)--#कहानीकार प्रतियोगिता
और फिर वही हुआ जिसका मास्टर प्रभुचिन्तन को डर था,लक्खा ने लठैतों के साथ मिलकर निर्मला को उनके घर से उठवा लिया,जब मास्टर साहब घर पर नहीं थे और उसे गाँव से कहीं दूर ले गए और लक्खा ने उसके साथ जोर जबर्दस्ती करके उसे छोड़ दिया और फिर निर्मला ने नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली और ये खबर पूरे गाँव में आग की तरह फैल गई और फिर कौशकी जी मास्टर साहब के घर आईं,जहाँ वें निर्मला की लाश को देखकर फूट फूटकर रो पड़ी और मास्टर साहब से बोलीं.... "मुझे माँफ कर दीजिए मास्टर जी! मैं इस अनहोनी को होने से रोक ना सकीं,मैंने उन्हें बहुत समझाया था लेकिन वें नहीं माने", "इसमें आपका कोई कुसूर नहीं है जमींदारन जी! जब नसीब ही खोटे हों तो कोई क्या कर सकता है",मास्टर साहब बोलें... "ऐसा मत कहिए मास्टर जी!",कौशकी जी बोलीं.... "तो क्या कहूँ मालकिन! ना जाने भगवान क्यों हम गरीबों की किस्मत में इतना दुःख लिख देता है,जब उस ऊपरवाले को हम पर दया नहीं आती तो फिर जमींदार साहब कौन होते हैं हम पर दया दिखाने वाले,मरते वक्त मेरी बच्ची कितना रोई होगी,कितना तड़पी होगी,भगवान ये दिखाने से पहले मुझे तूने अपने पास क्यों ना बुला लिया,जवान बच्ची की लाश देखकर मेरी तो छाती फटी जा रही है,अब ठाकुर सा ब से कह दीजिएगा कि ले ले वो मेरी दो बीघा जमीन अब मुझे उसकी कोई जरूरत नहीं", और ऐसा कहकर मास्टर जी फूट फूटकर रोने लगे तो कौशकी जी के संग आएं रामस्वरूप जी ने उन्हें ढ़ाढ़स बँधवाकर उन्हें अपने सीने से लगा लिया और फिर इस बात से कौशकी जी आगबबूला होकर जमींदार वीरभद्र जी के पास जाकर बोलीं.... "ये आपने ठीक नहीं किया जमींदार साहब! भगवान से कुछ तो डरिए,इतने पाप करके आपको नरक में भी जगह नहीं मिलेगी", "चुप रहो! तुम फिर से मुझे ज्ञान देने आ गई,जब तुम मुझे छोड़कर शान्तिनिकेतन में जाकर रहने लगी हो तो फिर मेरी इतनी चिन्ता क्यों करती हो"?,वीरभद्र सिंह बोलें.... "मैं आपकी नहीं अपनी बेटियों की चिन्ता कर रही हूँ,वें दोनों आपके पास रहकर यही सब सीखेगीं,क्या असर पड़ेगा उनके चरित्र पर आपकी इन करतूतों का",कौशकी जी बोलीं.... "मैंने पहले ही कह दिया था कि अगर तुम ये हवेली छोड़कर शान्तिनिकेतन रहने गई तो तुम्हारा हमसे,ना इस हवेली से और ना इन दोनों बच्चियों से,किसी से भी कोई भी वास्ता नहीं रहेगा,पहले तो तुम उनसे मिल ने आ जाया करती थी लेकिन अब वो भी नहीं कर पाओगी",जमींदार वीरभद्र सिंह बोलें.... "ऐसा ना कहिए! मेरी बच्चियों से मुझे दूर मत कीजिए,इतने कठोर मत बनिए,एक माँ की ममता को समझने की कोशिश कीजिए",कौशकी जी बोलीं.... "हमारे खिलाफ जाने का यही नतीजा होता है,तुम अगर हमारे खिलाफ ना जाती तो हम ऐसा कभी नहीं करते",जमींदार साहब बोलें.... "लेकिन मैं सच का साथ नहीं छोड़ सकती",कौशकी जी बोलीं... "तो फिर तुम्हें अपनी बच्चियों को छोड़ना होगा",वीरभद्र सिंह बोलें.... "अगर आप यही चाहते हैं तो यही सही", और ऐसा कहकर कौशकी जी हवेली से जाने लगी तो उनकी दोनों बेटियाँ ओजस्वी और तेजस्वी उनके पास आ गई और ओजस्वी उनके पास आकर बोलीं.... "माँ!आप जा रहीं हैं"! "हाँ! बेटा अब जाना ही पड़ेगा,अपना ख्याल रखना", और ऐसा कहकर कौशकी जी चली गईं और ओजस्वी माँ के लिए बहुत रोई लेकिन तेजस्वी ना रोई ,वो थोड़ी कठोर जी की थी... फिर मास्टर जी ने भी अपनी बेटी के जाने के ग़म में पेड़ से फाँसी लगाकर खुदखुशी कर ली.... और इतनी कहानी सुनाकर साध्वी जी चुप हो गईं तो कृष्णराय जी ने पूछा.... "आप तो जमींदार साहब की कहानी सुनाने बैठ गई,मैं तो सोच रहा था कि आप बंसी और लक्खा की कहानी सुनाऐगीं", ये सुनकर साध्वी जी बोली.... "उन दोनों की कहानी सुनाने के लिए जमींदार साहब की कहानी सुनानी भी जरूरी थी,इसलिए ये कहानी उन्हीं से शुरू हो गई", "लेकिन मुझे तो ओजस्वी और तेजस्वी की कहानी जानने में ज्यादा दिलचस्पी है",कृष्णराय जी बोले.... और फिर कृष्णराय जी की बात सुनकर साध्वी जी वहाँ से उठकर चलीं गईं, काफी रात हो चुकी थी इसलिए कृष्णराय जी सो गए औय सुबह जागे तो उनके पास एक बूढ़ी नौकरानी चाय ला चुकी थी तब कृष्णराय जी ने उस बूढ़ी नौकरानी से पूछा... "आप यहाँ कब से काम कर रहीं हैं"? "जी ! दस बरस से",वो बूढ़ी नौकरानी बोली... "तो क्या आप किसी किशोर जोशी नाम के शख्स को जानतीं हैं",?,कृष्णराय जी ने पूछा... और फिर ये सुनकर उस नौकरानी ने कोई जवाब ना दिया और वो नौकरानी वहाँ से चली गई,इसके बाद कृष्णराय जी ने स्नान करके सुबह का नाश्ता किया और व्हीलचेयर में बैठकर शान्तिनिकेतन के बगीचे की सैर करने लगे तभी उन्हें वहाँ साध्वी जी दिखी तो वें उनसे बोलें.... "ये अच्छी बात नहीं है,कहते हैं कि कहानी पूरी ना सुनाने से मामा गंजे हो जाते हैं", ये सुनकर साध्वी जी हँस पड़ी और कृष्णराय जी से बोली.... "कहीँ आप बंसी और लक्खा की कहानी अधूरी छोड़ने की बात तो नहीं कह रहे हैं", "हाँ! मेरा वही मतलब था"कृष्णराय जी बोले..... तब साध्वी जी बोलीं.... तो ठीक है बंसी की पत्नी बेला से शुरु करते हैं,पता नहीं इतनी खूबसूरत बेला ने उस साँवले से बंसी से कैसें प्यार कर लिया,वो उससे मिलने रोज जंगल में जाया करती थी और बंसी गाना गाते गाते उसकी राह ताका करता था,बंसी के गाने की आवाज़ पर बेला यूँ उसकी ओर खिची चली जाती थी और जब चुपके से बेला उसके बगल में बैठकर उसका गीत सुनने लगती तो वो उससे कहता .... "आ गई तू", "हाँ! आना ही पड़ा,तू जो इतना सुरीला गाना गाकर जो बुला रहा था",बेला बोलती... "तेरी याद में ही निकलता है इतना सुरीला गाना",बंसी बोलता.... "घर आकर बाबू से फौरन शादी की बात कर ले नहीं तो उम्र भर गाना ही गाता रह जाएगा",बेला बोलती... "ऐसी अशुभ बातें मुँह से ना निकाला कर बेला,तू मुझे ना मिली तो कसम खा के कहता हूँ मैं तो मर ही जाऊँगा",बंसी बोलता... और ऐसे ही दोनों मिलते रहे, फिर एक दिन बेला के कहने पर बंसी बेला के बाबू के पास बेला का हाथ माँगने गया और उसने बंसी को साफ इनकार करते हुए उससे बोला.... "तू तो ठहरा फक्कड़ आदमी ,ना तेरा कोई घर है और ना ही रहने का कोई ठिकाना,ऊपर से दारू पीकर कहीं भी पड़ा रहता है,क्या खिलाऐगा मेरी बेटी, तेरे जैसे निकम्मे आदमी को मैं अपनी बेटी कभी नहीं दूँगा,मेरी बेटी की तो मत मारी गई है जो तुझसे दिल लगा बैठी", और उसकी बात सुनकर बंसी निराश होकर वापस लौट आया,लेकिन जब बंसी बेला के घर से चला गया तो बेला अपने बाप से बोली.... "बापू! तू चाहे कुछ भी कर ले,मैं तो बंसी से ही ब्याह करूँगी और उससे रोज मिलने भी जाऊँगीं", "चुप कर तू! मैं तेरा ब्याह बंसी से कभी नहीं करूँगा", और ऐसा कहकर बेला का बाप वहाँ से चला गया....
क्रमशः.... सरोज वर्मा...